लखनऊ :
।। कृष्ण की प्रतिज्ञा भंग और भीष्म का अधर्म।।
डॉ.उदयराज मिश्र(साहित्यकार शिक्षक)
दो टूक : महाभारत का युद्ध केवल शक्ति और नीति का संघर्ष नहीं था, यह धर्म और अधर्म के गूढ़ रहस्यों,शक्तिमान लोगों द्वारा अपनी वचनबद्धता के चलते अधर्म को प्रोत्साहन देने,परिवर्तन की निरंतरता के बावजूद प्रणबद्ध होकर धर्म को हानि पहुंचाने आदि को उजागर करने वाला एक विराट मंच था। इसी युद्ध के दौरान एक ऐसा प्रसंग घटित होता है, जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, जो कि युद्ध में केवल सारथी की भूमिका निभाने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, वह प्रतिज्ञा भंग करते प्रतीत होते हैं। यह घटना भीष्म पितामह के साथ जुड़ी हुई है, जिन्हें सत्यनिष्ठा, ब्रह्मचर्य और कर्तव्यपालन के लिए जाना जाता है। यह प्रसंग न केवल कृष्ण की लीलाओं की गहराई को दर्शाता है, बल्कि भीष्म के धर्म-अधर्म के अंतर को भी उद्घाटित करता है।प्रायः जनसामान्य को ऐसा लगता है कि इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त भीष्म के पराक्रम के आगे श्रीकृष्ण को विवश होकर अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ना पड़ा था,किंतु यथार्थरूप में ऐसा है नहीं।श्रीकृष्ण ने अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को स्वयं भंग कर मानवमात्र को यह संदेश दिया कि यदि मनुष्य का वचन ही धर्म की स्थापना के मार्ग में बाधक बनता है तो ऐसे दिए गए वचन और ली गई शपथ को तोड़कर अधर्म का नाश करने में उद्यत होना ही सबसे बड़ा धर्म होता है और फिर श्रीकृष्ण तो साक्षात् परमब्रह्म हैं,उन्हें न तो कोई वचन बांध सकता था और न ही उन्हें कोई मार सकता था।
यह सर्वविदित है कि कुंती रिश्ते में श्रीकृष्ण की बुआ थीं।इस नाते कौरव और पांडव दोनों ही उनके निकट संबंधी थे। यही कारण है कि हलधर बलराम जहां कुरुक्षेत्र में होने वाले महाभारत युद्ध में तटस्थ रहते हुए युद्ध के दौरान तीर्थयात्रा पर चले किए किंतु वासुदेव ने अधर्म के विनाश और दोषियों को दंडित करने के निमित्त प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में भाग लेने का निर्णय किया था।किंतु युद्धारंभ से पूर्व श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी—
"सैन्यं च समुपस्थाय नाहं युध्ये कदाचन।"
(महाभारत, उद्योग पर्व)
वासुदेव ने घोषणा करते हुए कहा था कि"मैं किसी भी पक्ष के लिए युद्ध नहीं करूंगा, केवल एक पक्ष को मेरी नारायणी सेना और दूसरे पक्ष को मुझे बिना अस्त्र-शस्त्र के मिलेगा।"दृष्टव्य है कि अर्जुन ने चयन का समय आनेपर श्रीकृष्ण को चुना,जबकि दुर्योधन ने सर्वदा अपराजेय रहने वाली श्रीकृष्ण की नारायणी सेना को।यही कारण है कि युद्ध में प्रहारों की तीव्रता और रणकौशल की दृष्टि से सारथी की पारंगतता के आधार पर श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने।
निःसंदेह इतिहास में सबसे कठिन प्रतिज्ञा करने वाले पुरुषों में भीष्म जैसा कोई दूसरा नहीं मिलता है।यही कारण है कि भीष्म पितामह को 'प्रतिज्ञा पुरुष' कहा गया,उन्होंने जीवनपर्यंत हस्तिनापुर की रक्षा का व्रत लिया था किंतु वे धृतराष्ट्र और उसके सौ पुत्रों को ही हस्तिनापुर मान बैठे,यही उनकी महान गलती थी।यदि आजीवन ब्रह्मचर्य रहते हुए मर्यादाओं के प्रत्येक पाठ का अनुशीलन स्वयं भीष्म ने अपने जीवन में किया था किंतु हस्तिनापुर की रक्षा के लिए लिया गयौनक प्रण ही उनके अधर्म का आधार बना।शक्तिमान और नीतिज्ञ होते हुए भी वे कौरवों और पांडवों को द्युत क्रीड़ा से नहीं रोक सके,उनकी आंखों के सामने ही कुलवधू द्रोपदी का वस्त्रहरण हुआ,पांडवों को लाक्षाग्रह में जलाकर मारने का कुचक्र रचा गया किंतु फिर भी वे मौन रहे।विद्वानों,शक्तिमानों,नीतिज्ञों और अधिकारी पुरुषों को अधर्म को होते देखना ही उनका सबसे बड़ा पाप होता है,जोकि उन्होंने किया था किंतु उन्हें इसका न तो आभास था और न ही एहसास।महाभारत के युद्ध में उनका आचरण पूर्णत: निष्पक्ष नहीं रहा। वे दुर्योधन की ओर से युद्ध कर रहे थे, भले ही उनका मन पांडवों के प्रति स्नेहपूर्ण था, लेकिन उन्होंने युद्ध में कभी भी कौरवों को संयमित नहीं किया, न ही अधर्म का विरोध किया।जबकि स्वयं भीष्म ने ही कहा था - "धर्मेण धर्मानपितः प्रयुज्ये, स धर्म एव भर्तव्यो न वै संप्रयुज्यः।"
(महाभारत, भीष्म पर्व)
स्वयं उन्होंने ही कहा था कि"धर्म के नाम पर भी अधर्म को साथ न जोड़ा जाए।"किन्तु उन्होंने अधर्म को सहर्ष स्वीकारा,यही उनका आन्तरिक द्वंद्व और दोष है।कदाचित उन्हें यह ज्ञात ही नहीं हो सका कि उनके दायित्व क्या हैं और वे क्या कर रहे हैं।वे तो हस्तिनापुर राजसिंहासन को ही हस्तिनापुर समझने की भूल कर बैठे।
भीष्म को उनके पिता शांतनु द्वारा इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।वे स्वयं आठवें वसु के अवतार और गंगा पुत्र थे।नारायण के छठे अवतार भगवान परशुराम उनके गुरु थे किंतु बिना विचार किए उनके द्वारा ली गई शपथ और की गई प्रतिज्ञा ही उनके व्यक्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है,दाग लगाती है।जिसके प्रक्षालन हेतु श्रीकृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर यह संदेश दिया कि यदि व्यक्ति की प्रतिज्ञा धर्म के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करे,अधर्म को बढ़ावा दे,अन्याय को होता हुआ चुपचाप देखने को विवश करे तो शक्तिमान लोगों को चाहिए कि वे भी परिवर्तन की शाश्वत धारा के अनुरूप धर्म का साथ दें और अपनी प्रतिज्ञा को स्वयं भंग करते हुए न्याय का पक्ष लें।भीष्म को यही शिक्षा देने के लिए श्रीकृष्ण ने स्वयं अपनी प्रतिज्ञा भंग की।श्रीकृष्ण ने भीष्म से कहा कि यदि धर्म की स्थापना के लिए भीष्म वध आवश्यक है तो उन्हें अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर भीष्म का अंत करना ही होगा,धर्म और न्याय का पक्ष लेना ही होगा,यही कार्य भीष्म जीवनभर नहीं कर सके। महाभारत में वर्णन मिलता है कि युद्ध के आठवें दिन जब भीष्म पितामह ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा ली और विकराल रूप धारण कर पांडव पक्ष का संहार करने लगे,तब श्रीकृष्ण ने क्रुद्ध होकर रथ से उतरकर चक्र उठाया और भीष्म की ओर दौड़ पड़े। यह दृश्य चौंकाने वाला था –
"सन्नद्धो भगवान् कृष्णो रथात् सत्त्वसमन्वितः।
उत्तमास्त्रमुपादाय भीष्मं हन्तुं मनो दधे॥"
(महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय 59)
यहाँ श्रीकृष्ण द्वारा चक्र उठाकर भीष्म का वध करने हेतु उद्यत होने से ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा भंग की किंतु यह सत्य नहीं है। यह केवल 'प्रतीत' है। वस्तुतः यह एक लीला थी।जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण ने मनुष्यों को निरंतरता,परिवर्तन और विचारशीलता के बीच सर्वदा धर्म का पक्ष लेने हेतु अपने प्रण,अपनी प्रतिज्ञाओं,शपथों और दृढ़ संकल्पों को छोड़कर,तोड़कर अधर्म का विनाश करना श्रेयस्कर बताया है।यही कारण था कि जब कृष्ण ने भीष्म को उनकी कमियों,गलतियों और उनके द्वारा किए गए अन्यायों का एहसास कराया तो भीष्म पितामह उस समय श्रीकृष्ण के इस रूप से आह्लादित हो उठते हैं। वे आत्मसमर्पण की स्थिति में पहुँच जाते हैं।अपने अपराधों का बोध होने से वे स्वयं वासुदेव से कहते हैं कि -
"स त्वां दृष्ट्वा हरिं क्रुद्धं चक्रपाणिं सुरार्दनम्।
अभवद् भक्तिपरमो हर्षाश्रुपरिपूरितः॥"
(भीष्म पर्व, अध्याय 59)
भीष्म स्वयं कहते हैं कि वे चाहते थे कि श्रीकृष्ण धर्म स्थापना के मार्ग में बाधक बन चुके उनके दैहिक स्वरूप का अंत कर पांडवों की विजय के साथ न्याय की जीत का मार्ग प्रशस्त करें।जिसके फलस्वरूप वे स्वयं को श्रीकृष्ण के आगे समर्पित के देते हैं स्वयं उनका यह कथन ही बहुत कुछ स्पष्ट करता है—
"मरणं परमं श्रेयः तव पादावुपाश्रितम्।
श्रीमद्भगवद्गीता (4.8) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥"
इस प्रकार श्रीकृष्ण का भीष्म को मारने हेतु शस्त्र उठाना‘धर्मसंस्थापन’ का प्रतीक है। भीष्म पितामह का युद्ध में पक्षपात और अधर्मियों के प्रति मौन स्वीकार उनके धर्म की अपूर्णता को दर्शाता है। कृष्ण की प्रतिज्ञा भंग प्रतीत होना वास्तव में धर्म की रक्षा हेतु उनकी एक लीलामय योजना थी।
आचार्य शंकर, रामानुज तथा मध्वाचार्य जैसे वैदिक मनीषियों ने इस प्रसंग की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि—
"जब परमेश्वर स्वयं किसी नियम को तोड़ते हैं, तो वह नियम नहीं रह जाता, वह धर्म की प्रतिष्ठा बन जाता है।"यह भीष्म के अधर्म का ही प्रमाण था कि भगवान को अपनी प्रतिज्ञा को त्यागने की स्थिति उत्पन्न करनी पड़ी।भीष्म का अधर्म उनके कर्तव्य के चयन में था — जहाँ वे अधर्मियों के पक्ष में युद्धरत थे। वहीं, श्रीकृष्ण का प्रतिज्ञा भंग नहीं बल्कि वह धर्म के गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करने वाला एक संकेत था। यह घटना धर्म के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपों की पहचान कराती है।कृष्ण की प्रतिज्ञा बाह्य रूप से भंग प्रतीत होती है, किंतु धर्म की रक्षा हेतु लीला।भीष्म का अधर्म अधर्मी पक्ष का समर्थन और मौन रहना।धर्म का मर्म केवल व्रत पालन नहीं, धर्म के मूल लक्ष्य - सत्य, न्याय, करुणा की स्थापना करना।
- डॉ.उदयराज मिश्र
साहित्यकार शिक्षक