लखनऊ :
।। तहसील की तफ्सील।।
विद्यावाचस्पति उदयराज मिश्र ।।तहसील की तफ्सील।।
भरी दुपहरी लूटती,याची को तहसील।
थाने तो यमराज बन,ठोंक रहे हैं कील।।
ठोंक रहे हैं कील,कहां जाये फरियादी।
यहां मांगना न्याय,समय धन की बर्बादी।।
लेखपाल की लेखनी,औ गुनिया की नाप।
घटती बढ़ती है सतत,रकबे की परिमाप।।
रकबे की परिमाप,कभी भी सही न होती।
जनता हो बेहाल,नित्यप्रति संयम खोती।।
भला कौन अनभिज्ञ है,किसे नहीं है ज्ञान।
तहसीलों में द्रव्य से,मिलती है पहचान।।
मिलती है पहचान,बनी हर टेबल डाकू।
देती वैसी घाव, नहीं जो देता चाकू।।
मौसेरे भाई हुए, अफसर और दलाल।
निर्धन की मत पूंछिये,कहीं न गलती दाल।।
कहीं न गलती दाल,बढ़ाते पगपग झगड़ा।
सौ बातों का सार,यहां का सिस्टम कचड़ा।।
विद्यावाचस्पति उदयराज मिश्र