लखनऊ :
सामाजिक न्याय से सनातन विरोध की राह पर सपा और राजद।
(डॉ.उदयराज मिश्र,चिंतक एवं विचारक)
दो टूक : बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में सामाजिक न्याय केवल नारा नहीं रहा, बल्कि आंदोलन, संघर्ष और वैचारिक आधार रहा है। राममनोहर लोहिया का ‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’, लोकनायक जयप्रकाश नारायण का ‘संपूर्ण क्रांति’ और जननायक कर्पूरी ठाकुर का ‘सबसे कमजोर के लिए सबसे पहले’—ये तीनों ध्रुव-तारे उस राजनीति के थे जिसने कभी बिहार में राजद और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को वैचारिक रूप से सबसे सक्रिय राजनैतिक दलों के रूप में स्थापित किया और बनाए रखा।लेकिन हाल के बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के मंच से तथा उस चुनाव में उत्तर प्रदेश के समाजवादी स्टार प्रचारकों के मंच से इन तीनों महानायकों का नाम गायब होना कई सवाल खड़े करता है। मंच पर केवल अंबेडकर–फुले के संदर्भ और उससे भी अधिक, ब्राह्मण–विरोधी स्लोगनों का उभरता स्वर—क्या यह वही राजद है,क्या वही समाजवादी पार्टी है,जो लोहिया–जेपी–कर्पूरी की विरासत का दावा करती आयी थी?क्या ये वही दल हैं जिसे जनेश्वर मिश्र जैसे छोटे लोहिया और युवा तर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर जैसे धुरंधर राजनेताओं ने अपने खून पसीने से सामाजिक न्याय मिशन को बल प्रदान करते हुए इन दोनों दलों को संजीवनी पिलाई थी?आदि ऐसे प्रश्न हैं जो देश में नई बहस और नई विचारधारा की सम्यक विवेचना को बल प्रदान करते हैं।
वस्तुत: देखा जाए तो बिहार में लालू युग और यूपी में मुलायम काल लालू समावेशिता, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक सहअस्तित्व का काल कहा जा सकता है।स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव का दौर विधानसभा चुनावों में केवल नारा–राजनीति का दौर नहीं था।उन्होंने समाज के एक बड़े वर्ग को आवाज दी, लेकिन उनका राजनीतिक मंच किसी जाति या समुदाय की खुली उपेक्षा नहीं करता था।ब्राह्मण–विरोध जैसी रैखिक राजनीति उनके समय का चरित्र नहीं थी।मुलायम सिंह स्वयं छोटे लोहिया खेलने वाले जनेश्वर मिश्र को अपना आदर्श मानते थे तथा एक शिक्षक होने के कारण माध्यमिक शिक्षक संघ के तत्कालीन अध्यक्ष और देश के सबसे अधिक अवधि तक विधान परिषद सदस्य रहे ओम प्रकाश शर्मा को भगवान की तरह सम्मान देते थे।स्वयं मुलायम सिंह सत्ता के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण का बड़ा चेहरा होने के बावजूद क्षत्रियों,ब्राह्मणोबौर वैश्यों को अपनी पार्टी में हमेशा ऊंचा ओहदा दिया करते थे।अयोध्या गोलीकांड का दाग उनके दामन को दागदार अवश्य बनाता है किंतु इसके अलावा उनकी भावनाएं कभी भी प्रदूषित नहीं रहीं।अलबत्ता दलित नेत्री मायावती के साथ उनके द्वारा करवाया गया गेस्ट हाउस कांड उनके और सपा के दलित विरोधी होने का जीवंत प्रमाण अवश्य कहा जा सकता है।इसी तरह धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में लालू की भागीदारी भी हमेशा बढ़चढकर हुआ करती थी।उन्होंने राजनीति को लोक-परंपरा से जोड़कर देखा।उनकी छवि एक ऐसे नेता की रही,
छठ पूजा में घाटों पर जाकर व्यवस्था की समीक्षा करते थे,स्वयं अरघ्य देने वालों से मिलते,तुलसी विवाह, गंगा स्नान, काली पूजा जैसे आयोजनों में मौजूद रहते,जनता के धार्मिक कार्यक्रमों को लोक-संस्कृति का अंग मानते थे।उनकी यह शैली उन्हें ग्रामीण बिहार के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ती थी।लालू और मुलायम सिंह के दौर में राज नीति अंबेडकर–लोहिया–जेपी–कर्पूरी सभी का सामूहिक मिश्रण था; साथ में लोकजीवन की गंध भी थी।
यथार्थरूप में देखा जाय तो वर्तमान राजद और समाजवादी पार्टी का बदलता मंच उनकी सीमित वैचारिकता की ओर बदलते उनके चरित्र को उजागर करती है।दोनों ही दलों के नेता सनातन धर्म और संस्कृति तथा परम्पराओं पर ऊल जुलूल बयान देते रहते हैं तथा दोनों ही दल ऐसे वक्तव्य देने वाले अशिष्ट नेताओं को खुलेआम संरक्षण देते भी रहते हैं।हाल के चुनावी मंचों पर सनातन विरोध के साथ ही एक और प्रवृत्ति साफ दिखी जैसे - लोहिया का नाम अनुपस्थित,लोकनायक जेपी का उल्लेख कम,कर्पूरी ठाकुर की विरासत धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में,अंबेडकर के नारे प्रमुख,कुछ वक्ताओं द्वारा खुले ब्राह्मण–विरोधी वक्तव्य छाए रहे और दोनों ही दलों के सुप्रीमों भी इनमें मशगूल रहे।जिससे प्रश्न उठता है कि क्या यह परिवर्तन रणनीति है या वैचारिक भ्रम?राजद और सपा की मूल वैचारिक रेखा क्या थी? वस्तुत:राजद और सपा की राजनीति का आधार तीन स्तंभों पर खड़ा था - पहला सामाजिक न्याय,दूसरा सहभागिता और सेक्युलरता और तीसरा लोक-आधारित सांस्कृतिक समन्वय।
लेकिन आज मंच पर सामाजिक न्याय की व्यापक अवधारणा संकुचित होकर विशिष्ट वोट बैंक तक सीमित दिखती है।सहभागिता की जगह विरोध और टकराव की राजनीति का स्वर उभरता है।लोक-संस्कृति के उत्सव अब नेताओं की प्राथमिकता में कम दिखाई देते हैं।स्वयं लालू प्रसाद द्वारा महाकुंभ को बकवास कहना,छपरा से राजद प्रत्याशी खेसारी लाल द्वारा राम मंदिर और ब्रह्मा जी पर ओछे बयान देना तथा उत्तर प्रदेश में सपा विधायक राम अचल राजभर और पूर्व समाजवादी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा राम चरित मानस तथा सनातन पर प्रहार यह दर्शाता है कि ये दोनों ही पार्टियां अपने मूल सिद्धांतों से भटक गई हैं। समाजवादी और राजद नेता ब्राह्मण–विरोध को लोहियावाद का भ्रमित संस्करण मान बैठे हैं।जबकि उन्हें यह नहीं मालूम कि लोहिया पिछड़ों के अधिकारों के समर्थक थे, किसी जाति के कट्टर विरोधी नहीं।
कर्पूरी ठाकुर ने भी रचनात्मक सामाजिक परिवर्तन की बात की थी, न कि किसी वर्ग के बहिष्कार की।आज राजद और सपा के मंचों पर बढ़ता ब्राह्मण-विरोध उनकी मूल वैचारिक परंपरा से मेल नहीं खाता।
यह वह रचनात्मक राजनीति नहीं है जिसकी नींव लोकनायक जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ने रखी थी।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या केवल अंबेडकर का नारा पर्याप्त है?अंबेडकर भारतीय संविधान, समानता, लोकतंत्र और न्याय के अग्रदूत हैं।उनका स्मरण राजनीति की मजबूती है, कमजोरी नहीं।
लेकिन जब—केवल एक नेता का उल्लेख हो,और अन्य वैचारिक स्तंभ उपेक्षित हों तथा समाज के एक हिस्से को प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष निशाना बनाया जाए,तो यह विचारधारा नहीं, वोट-बैंक की युक्ति प्रतीत होती है।राजद और सपा यदि केवल अंबेडकर पर केंद्रित होती जाए, और लोहिया–जेपी–कर्पूरी को विस्मृत कर दे, तो वह अपने बहुलतावादी सामाजिक न्याय मॉडल से दूर जाती दिखेगी।
राजद द्वारा छठ पूजा और सांस्कृतिक विरासत से दूरी भी राजनीतिक हानि का परिचायक है।इन दलों को भूलना नहीं चाहिए कि छठ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की अस्मिता है।एक समय था जब लालू प्रसाद यादव छठ घाटों पर जाते,व्यवस्था की समीक्षा करते,महिलाओं से संवाद करते,छठ की "नदी–संस्कृति" को बिहार की पहचान बताते।आज उसी राजद के मंच पर धार्मिक उत्सवों का ज़िक्र विरला है, जबकि बीजेपी और जदयू इसमें बढ़त बना चुकी हैं।
सांस्कृतिक दूरी सीधी राजनीतिक दूरी में बदलती है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या राजद और सपा अपने मिशन से भटक रही हैं?क्या यह भटकाव ही इन दलों की पराजय का मुख्य कारण हैं।सत्य तो यह है कि लोहिया–जेपी–कर्पूरी की वैचारिक परंपरा का गायब होना,ब्राह्मण विरोध जैसे नकारात्मक स्वरों का उभार,अखिलेश और लालू की सांस्कृतिक भागीदारी का अभाव,केवल अंबेडकर-केन्द्रित मंच और पीडीए की चिल्लाहट,चुनावी राजनीति में अति-जातीय ध्रुवीकरण, लोक-संस्कृति से दूरी यही दर्शाते हैं कि ये दोनों पार्टियां अब अपने स्थापित मूल्यों और सिद्धांतों से कोसों दूर हट गईं हैं।परिणाम स्वरूप राजद और सपा का ‘‘सर्वसमावेशी सामाजिक न्याय’’ मॉडल टूटकर
"चुनिंदा सामाजिक समूहों की राजनीति" में बदलता हुआ दिखता है।
विचारकों के अनुसार सपा और राजद को अपनी मूल राह पर लौटे बिना इन दोनों दलों का भला नहीं होने वाला है।यदि इन्हें पुनः व्यापक जनाधार बनाना है, तो उसे—लोहिया–जेपी–कर्पूरी की सामाजिक न्याय पर आधारित समन्वयवादी नीति,लालू की सांस्कृतिक सहभागिता,अंबेडकर की संवैधानिक दृष्टि और हर समुदाय के प्रति सम्मान और इन सबको एक साथ लेकर चलना होगा।राजनीति केवल नारा नहीं, समाज का आईना है।आज के मंच राजद के आईने में भ्रम दिखा रहे हैं—उन्हें साफ करने की जरूरत है।कमोवेश यही हाल समाजवादी पार्टी का भी है।जिससे कहना गलत नहीं होगा कि अखिलेश यादव के मन में बिहार के परिणामों की समीक्षा ऐसी भय बनकर बैठती जा रही है,जो अगले कुछ महीनों में कुछ अलग ही भावों के रूप में दिखाई देंगी।
