गुरुवार, 4 सितंबर 2025

लखनऊ :व्यथित शिक्षकों का शिक्षक दिवस।।||Lucknow:Teachers' Day for distressed teachers.||

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लखनऊ :
व्यथित शिक्षकों का शिक्षक दिवस : उदय राज मिश्र।।
दो टूक : किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहाँ के कल कारखानों या आयुद्धनिर्माणियों अन्यथा कि राजनेताओं की नीतियों से नहीं अपितु वहाँ के नागरिकों की राष्ट्रीय सोच और उनकी कर्तव्यपरायणता पर निर्भर करता है।जिनका शिल्पी कोई और नहीं सिर्फ शिक्षक होता है।यही कारण है कि शिक्षकों को प्रजापति ब्रह्मा की तरह राष्ट्रनिर्माता और भाग्यनिर्माता की संज्ञाएँ दी जाती हैं।किंतु कदाचित वर्तमान दौर में जबकि सत्ता और सरकार जहाँ एकतरह सरकारी आयोजनों द्वारा शिक्षक सम्मान समारोहों का आयोजन करने में मशगूल दिखती हैं तो वहीं यह भी यक्ष प्रश्न उभरता है कि वर्षभर बात बात पर शिक्षकों को उलाहना देने वाले अधिकारियों की कार्यशैली बदले बिना औरकि बिना शिक्षकों को शोषणमुक्त उन्मुक्त भाव से शिक्षण का उचित परिवेश सृजन के ही क्या ये सम्मान दिखावा मात्र नहीं हैं?यह प्रश्न विचारणीय है।
     दृष्टव्य है कि प्रख्यात शिक्षाशास्त्री व दार्शनिक तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी जब 13 मई 1962 को भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बने तो उनके शिष्यों ने उनके जन्मदिन को वृहद स्तर पर मनाने का अनुरोध किया।जिसपर उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में अपने शिष्यों से कहा कि यदि उनका जन्मदिन मनाया जाय तो उसे शिक्षक दिवस के रूप से मनाया जाय।तभी से प्रतिवर्ष 5 सितंबर को उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में व्यापक स्तर पर मनाया जाता है।इसदिन केंद्र व राज्य सरकारें सरकारी आयोजनों द्वारा शिक्षकों को सम्मानित करती हैं।इसके अलावा अनेक गैर सरकारी संगठन भी शिक्षक सम्मान समारोहों का आयोजन करते हैं।
    शिक्षक दिवस की प्रासंगिकता के संदर्भ में जानेमाने शिक्षाशास्त्री व इंदिरा अवार्डी ज्ञानसागर मिश्र का यह कहना कि इस दिवस की प्रासंगिकता सर्वकालिक है किन्तु वर्तमान दौर अधिकारियों व नेताओं में हृदयों में शिक्षकों के प्रति विद्वेषण का दौर है।जिसके चलते सभीलोग शिक्षकों के वेतनभत्तों की चर्चाएं सड़कों तक पर करते हैं किंतु शिक्षकों की समस्याओं व उनके सम्मुख खड़ी चुनौतियों का जिक्र तक नहीं करते।सरकार और अधिकारियों की उदासीनता का आलम यहांतक बदतर हालात में कि आज वित्तविहीन शिक्षक अपने मानदेय को,तदर्थ शिक्षक विनियमितीकरण को,वर्ष 2005 से नियुक्त सभी शिक्षक पुरानी पेंशन को व वर्ष 2014 से अनिवार्य जीवन बीमा को और अब वर्ष 2011 से पूर्व विधि मान्य विधियों से नियुक्त और लगभग दो से तीन दशकों तक लंबी सेवा करने वाले बेसिक और जूनियर शिक्षकों के समक्ष टेट की अपरिहार्यता को लेकर या तो सड़कों पर आंदोलनरत हैं या फिर स्वाती की बूंद की तरह आसमान देख रहे हैं।वेतनभोगी शिक्षक प्रबंधकीय उत्पीड़न,अधिकारियों की कदाचारिता व सरकारी तंत्र की उदासीनता के शिकार हो पगपग घूस देने को विवश हैं,कोई उनका पुछन्तर या रहनुमा नहीं दिखता।ऐसे ही परिवेश में शिक्षकों को सम्मानित किये जाने का स्वांग आज स्वयम में ही किसी छलावे से कम नहीं है।
    वस्तुतः यहां यह स्मरण करना अति महत्त्वपूर्ण है कि कोई भी राष्ट्र  तभी उत्कर्ष को प्राप्त होता है जब वहां के शिक्षक अपने उद्देश्यों के प्रति जागरूक,कर्तव्यों के प्रति सजग व शालायें उचित परिवेश को समेटे हुए हों।इसी के साथ ही साथ नीति निर्माता राष्ट्र व समाज के अनुकूल नीतियों का निर्धारण करते हुए शिक्षकों के हितों को भी सर्वोपरि मानते हुए नीतियों का निर्माण करें,शिक्षकों के सभी कार्य शीर्ष वरीयता पर निपटाये जायं व बात बात में अधिकारियों द्वारा उन्हें सार्वजनिक अपमान का दंश न झेलना पड़े।सनद रहे कि जब शिक्षक अपने उद्देश्यों से विरत हो अपने हक हुक़ूक़ की रक्षा हेतु भूखे पेट सड़कों पर आंदोलनरत हो,ऐसी परिस्थिति में उनको सम्मानित करते हुए शिक्षक दिवस समारोह का आयोजन करना बेमतलब है।शिक्षकों का वास्तविक सम्मान तभी सम्भव है जब शिक्षक अपनी शालाओं से चरित्रवान व सुयोग्य विद्यार्थियों को तैयार कर राष्ट्र व समाज की सेवा में रत करें किन्तु इस निमित्त उन्हें पर्याप्त सुविधाएं,संसाधन तथा सहयोग अपेक्षित है।
      उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक दिवस 2025=महज एक रस्मअदायगी सा ही है।यहां आज वर्ष 2000 के पश्चात नियुक्त तदर्थ शिक्षक दो दशकों से अधिक समय तक सेवाएं देकर अपनी जीविका को लेकर रातोदिन चिंतित हैं तो 07 अगस्त 1993 से 30 दिसंबर 2000 ई. तक कठिनाई निवारण अधिनियम व धारा 18 के तहत विधिमान्य प्रक्रिया से नियुक्त कई सौ शिक्षक विनियमितीकरण से वंचित औरकि यूपी सरकार के दिनांक 09 नवम्बर 2023 के शासनादेश से अपनी सेवाओं के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं।इतना ही नहीं इन शिक्षकों के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय से हारकर भी सूबे के अधिकारी नियमित भुगतान नहीं कर रहे हैं।हालात तो यहां तक सोचनीय हैं कि स्वयम मुख्यमंत्री द्वारा भी तदर्थ शिक्षकों को उचित मानदेय दिए जाने की घोषणा धरातल पर नहीं दिखाई दे रही है।अतः जबकि सूबे के आधे भाग के शिक्षक सौ से ज्यादा दिनों से पाई पाई को तरस रहे हैं तो शिक्षक दिवस पर किस मुंह से सम्मानित करने की घोषणाएं की जाती हैं,सोचनीय है।
   यकीनी तौर पर देखा जाय तो महात्मा तुलसीदास द्वारा कही गयी पंक्ति-"बन्दउँ गुरुपद पदुम परागा।सुरुचि सुभाष सरस अनुरागा।।" जहां आज शिक्षकों की श्रेष्ठतम स्थिति की परिचायक हैं तो महात्मा कबीर द्वारा रचित पंक्ति,"कबिरा हरि के रूठते गुरु के शरने जाय।कह कबीर गुर रूठते हरि नहिं होत सहाय।।"शिक्षकों को सर्वश्रेष्ठ संरक्षक व निर्माता होने का बोध कराती हैं।कदाचित यही शिक्षकों का मूल दायित्व भी है।जिन्हें निभाने हेतु वह कभी कुम्हार की तरह शिष्यों को ताड़ना देता है,कभी पिता की तरह संरक्षण देता है,कभी मित्र की तरह से सलाह व मार्गदर्शन देता है।
    अस्तु परिस्थितियां चाहे जो भी हों,समाज व राष्ट्र के उत्कर्ष तथा समृद्धि हेतु शिक्षकों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहना ही उनका वास्तविक सम्मान है।सुशिक्षित व योग्य शिष्य जब एक जिम्मेदार नागरिक बनकर अपने गुरु को सम्मुख पाकर जिस समर्पण व श्रद्धा भाव से नतमस्तक होते हैं,आदर देते हैं,वही शिक्षक का वास्तविक सम्मान होता है।जिसे कोई सरकारी पुरस्कार कभी भी नहीं प्रदान कर सकता है।