शनिवार, 6 सितंबर 2025

लखनऊ : पितृपक्ष: श्राद्धम पितृसुखावहम,जाने कब से हो रहा प्रारंभ।।||Lucknow : Pitru Paksha: Shraddha for Pitru Sukhavaham, know when it starts.||

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लखनऊ : 
पितृपक्ष: श्राद्धम पितृसुखावहम,जाने कब से हो रहा प्रारंभ।।
दो टूक :  भारतीय जीवन-दर्शन में देवऋण,ऋषिऋण और पितृऋण कुल ऋणत्रय की अवधारणा है। इनमें पितृऋण का परिशोधन श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान, सपिण्डन और प्रेतकर्म से होता है। वेद, स्मृति, पुराण और धर्मशास्त्र पितृयज्ञ को अनिवार्य बताते हैं। 
वैदिक पंचांग के अनुसार, इस साल भाद्रपद माह की पूर्णिमा तिथि 07 सितंबर को देर रात 01 बजकर 41 मिनट पर शुरू होगी। ऐसे में दिन रविवार, 07 सितंबर 2025 के दिन से ही पितृ पक्ष की शुरुआत होने जा रही है। इसके साथ ही इसकी समाप्ति सर्व पितृ अमावस्या यानी 21 सितंबर 2025 को होगी।
विस्तार : 
पितृ पक्ष प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक का काल पितृपक्ष अर्थात महालय कहलाता है। यह अवधि पूर्वजों के तर्पण, श्राद्ध और संस्कारों के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
 मनुस्मृति, गरुणपुराण तथा महाभारत एवं शास्त्रों में पितृश्राद्ध को अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए संतति और सतत वंश परंपरा के उन्नयन हेतु अपरिहार्य बताया गया है। श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति "श्रद्धया दीयते इति श्राद्धम् " अर्थात श्रद्धापूर्वक पितरों को अर्पित अन्न, जल और तिलादि ही श्राद्ध है। श्राद्ध की महत्ता का उल्लेख मनुस्मृति में भी विस्तार से मिलता है।मनुस्मृति में
“श्राद्धे हि पितरः तृप्ता भवन्ति, श्राद्धे देवा अपि प्रसन्नाः।” कहकर श्राद्ध की श्रेष्ठता,महत्ता और आवश्यकता का विवेचन किया गया है।श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते हैं और देवगण प्रसन्न होकर धन्य धान्य की वृद्धि करते हैं,ऐसा मनुस्मृति का आदेश है।अतः पितृ श्राद्ध करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है।इसके अतिरिक्त महाभारत में पंचमहायज्ञों में पितृयज्ञ का स्थान है।गरुड़पुराण कहता है — जो श्राद्ध करता है वह स्वयं दीर्घायु, संततिवान और सुखी होता है।
    प्रश्न जहां तक श्राद्ध की विधि का है तो सबसे पहले मृतक का नाम, गोत्र उच्चारण कर कर्म का संकल्प लिया जाता है।तत्पश्चात चावल, तिल और घृत से पिण्ड बनाकर पितरों को अर्पित करना ही पिंडदान कहलाता है।पिंडदान के पश्चात जल,तिल और कुश से तर्पण और श्राद्ध में  कुटुंब सहित ब्राह्मण को भोजन कराना और दक्षिणा देते हुए यथाशक्ति वस्त्र,अन्न,गौ,भूमि,जलदान आदि करने से मान्यता है कि पितर प्रसन्न होते हैं।बहुधा देखा जाता है कि जो लोग पितृपक्ष में पितरों की श्राद्ध नहीं करते हैं उनके घरों में पारिवारिक कलह,पड़ोसियों से मनमुटाव,संतानों की भाग्य में बाधाएं,स्वास्थ्य संबंधी विकार और मानसिक उलझने प्रायः बनी रहती हैं और जो लोग विधि विधान से पितरों की श्राद्ध करते हैं अपेक्षाकृत उनके परिवार ज्यादा खुशहाल रहते हैं।
  जब किसी मृतक की पहली वर्षी आती है तो सपिंडन संस्कार किया जाता है।याज्ञवल्क्यस्मृति में वर्णन मिलता है कि “सपिण्डीकरणे कृते, सः पितृवर्गे लीयते।”अर्थात सपिण्डन से नूतन दिवंगत आत्मा पितृवर्ग में सम्मिलित हो जाती है।इसके न होने से दिवंगत आत्मा प्रेत संज्ञक बनकर भटकती रहती है।प्रेत शब्द को प्रीतिस्य अतिरेक: प्रेत: अर्थात प्रीति की अतिरेक अवस्था को प्रेत कहते हैं।शरीर का दाह होने पर दिवंगत आत्मा अपने परिजनों का मोह त्याग नहीं पाती।जिसके कारण वह अपने ही परिवार के मध्य प्रीति की अतिशयता के चलते मुक्त नहीं हो पाती है।इसलिए इस संस्कार के बिना मृत आत्मा अकेली और असंपृक्त रहती है। सपिण्डन के उपरान्त वह पितृलोक में अपने पूर्वजों के साथ एकीकृत हो जाती है और वंश पर संरक्षण प्रदान करती है।
  प्रेतकर्म मृत्यु के तुरंत बाद किए जाने वाले संस्कार हैं, जिनका उद्देश्य मृत आत्मा को प्रेतावस्था से निकालकर पितृलोक की ओर अग्रसर करना है।शास्त्रों में वर्णित है कि मृत्यु के बाद आत्मा कुछ समय तक प्रेतदेह धारण करती है।यह अवस्था १० दिन तक मानी जाती है। इस दौरान आत्मा अत्यन्त असहाय, भूख-प्यास से व्याकुल रहती है।इसीलिए गरुड़पुराण कहता है —
“यावज्जीवं तथा मृत्योरन्तरा प्रेतभावः।”
अर्थात जब तक श्राद्ध-संस्कार पूर्ण न हो, आत्मा प्रेतावस्था में ही रहती है।
   प्रेतकर्म के अंतर्गत पंच क्रियाओं का बहुत महत्व होता है।जिसमें अन्त्येष्टि (दाहसंस्कार) – शरीर का पंचतत्व में विलय,एकादशाह (११ दिन के संस्कार) – मृतक की आत्मा को प्रेतत्व से मुक्त करने हेतु तर्पण, पिण्डदान,सपिण्डन एवं पार्वण श्राद्ध – मृत आत्मा का पितरों में सम्मिलन,पिण्डप्रदान – १० दिन तक दैनिक पिण्डदान,सप्तदश क्रियाएँ – याज्ञवल्क्य व गरुड़पुराण में १७ संस्कार बताए गए हैं, जिनसे आत्मा पितृलोक की यात्रा हेतु सशक्त होती है।प्रेतकर्म न करने पर आत्मा असंतुष्ट होकर भटकती है।शास्त्र कहते हैं कि जो पुत्र पिण्डदान करता है वही श्रेष्ठ पुत्र है।प्रेतकर्म के द्वारा आत्मा का संक्रमण सुगम होता है और उसे पितृगति मिलती है।
   पितृपक्ष और श्राद्ध के महत्व का वर्णन गरुण पुराण में विस्तार से मिलता है।जिसमें लिखा है कि
पितृपक्ष में किए गए श्राद्ध और प्रेतकर्म का सौगुना फल मिलता है।गरुड़पुराण में उल्लिखित है कि - 
“अशक्यं नाम नास्त्यत्र, श्राद्धं पितृसुखावहम्।”
अर्थात इस पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों का तृप्त होना निश्चित है।श्राद्ध से पितर प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और कुल में सुख-समृद्धि आती है।
     सार संक्षेप में कह सकते हैं कि श्राद्ध,सपिण्डन और प्रेतकर्म — ये तीनों मिलकर पितरों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान की त्रिविध अभिव्यक्ति हैं।
श्राद्ध से पितरों की तृप्ति, सपिण्डन से उनका कुल में सम्मिलन और प्रेतकर्म से आत्मा का शांति-मार्ग प्रशस्त होता है। यह केवल कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक स्मृति और पितृऋण की परिपूर्ति का जीवंत माध्यम है।