लखनऊ :
रावण का भाई विभीषण की निष्कपट भक्ति का चित्रण।
।।डॉ.उदयराज मिश्र।।
दो टूक : घर का भेदी, देशद्रोही, कुलद्रोही, भाई का शत्रु आदि आदि लोकोक्तियों और मुहावरों के पर्याय बन चुके त्रेता काल से आजतक रामभक्त विभीषण के चरित्र का समग्र मूल्यांकन न होने से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आधा अधूरा पक्ष ही जनमानस को ज्ञात है।जबकि वास्तव में विभीषण का व्यक्तित्व एक कुलद्रोही,घर का भेदिया से इतर विशुद्ध रामभक्त और सत्य तथा धर्म की रक्षा और अनुपालन हेतु लोक निंदा की परवाह न करते हुए प्रभु के श्रीचरणों में निष्कपट समर्पण का है,त्याग और धैर्य तथा नीति का महासागर है।
गोस्वामी कृत श्रीरामचरितमानस और महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण एवं स्वयं महादेव कृत अध्यात्म रामायण के अनुशीलन से पता चलता है कि विभीषण महर्षि अगस्त्य के पौत्र तथा महर्षि विश्रवा और राक्षसराज सुमाली की पुत्री कैकसी के कनिष्ठ पुत्र थे।कहीं कहीं विभीषण को रावण और कुंभकर्ण का विमात्र बंधु भी बताया गया है।इन आख्यानों में विभीषण की माता का नाम केकसी की बहन निकशा बताया गया है,किंतु पिता महर्षि विश्रवा ही हैं।इससे ज्ञात होता है कि विभीषण का पितृ पक्ष अत्यंत आदरणीय ऋषिवंश था,किंतु गोधूलि के समय गर्भ धारण किए जाने के कारण जहां रावण और कुंभकर्ण में दानवी शक्तियां प्रभावी हुईं तो वहीं विभीषण में सात्विक वृत्तियां प्रकट हुईं।
विभीषण का चरित्र यह बताता है कि प्रभु की भक्ति के अधिकारी केवल संत,ऋषि और साधक ही नहीं हैं,अपितु नीच से नीच कार्य करने वाले,नीच और अधम वंश में जन्म लेने वाले भी यदि निष्कपट भाव से प्रभु की शरण में आते हैं,तो उन्हें प्रभुकृपा उतनी ही सहज रूप से प्राप्त होती है,जितनी कि कोई साधक,उपासक या महात्मा को प्राप्त होती है।
निष्कपट होना भक्ति का प्रथम और अनिवार्य सोपान है।इसके बिना प्रभु कृपा प्राप्त होना संभव ही नहीं है।स्वयं भगवान श्रीराम के मुखारविंद से प्रस्फुटित शब्द इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।स्वयं श्रीराम ने ही कहा है कि -
"निर्मल मन जन सो मोहिं पावा।
मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।"
(श्रीराम चरित मानस)
अर्थात निर्मल मन से निष्कपट भाव से जो भी श्रीराम का स्मरण करता है,उनकी शरण में जाता है,उसे प्रभु अवश्य ही कृतार्थ करते हैं,अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान करते हैं।विभीषण का चरित्र उनके निर्मल मन और निशक्त भाव का जीवंत उदाहरण है।रावण द्वारा पैरों से मारे जाने और तत्पश्चात लंका से निष्कासित किए जाने पर जब वे प्रभु श्रीराम की शरण की याचना लेकर उनके पास आते हैं तो अपना परिचय निष्कपट भाव से देते हैं।यदि कोई सामान्य व्यक्ति या उपासक होता तो अपना परिचय देते हुए बताता कि वह महर्षि पुलस्त्य का पौत्र,ऋषि विश्रवा का पुत्र और लंका में रहकर भी राम की पूजा करने वाला रामभक्त है,किंतु विभीषण ने अपना परिचय देते हुए ये सब नहीं कहा।यदि उनके मन में सामान्य मनुष्यों की तरह कपट होता तो वे अपने ऋषिवंश का परिचय देते किंतु उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि -
"नाथ दशानन कर मैं भ्राता।
निशिचर वंश जनम सूरत्राता।।"
(श्रीरामचरितमानस)
ध्यान देने योग्य बात है कि विभीषण ने जिसतरह अपना परिचय दिया,वैसा कोई मनुष्य दे ही नहीं सकता।यदि किसी के घर या रिश्तेदारी में कोई अधिकारी,मंत्री या विधायक हों तो लोग अन्य लोगों से उनके नामों और पदों का उल्लेख करते हुए अपना परिचय देते हैं और यदि घर या रिश्तेदारी में कोई नीच कर्म करने वाला पापी है तो उसका जिक्र ही नहीं करते।किंतु विभीषण ने ऐसा नहीं किया।विभीषण ने श्रीराम को अपना परिचय देते हुए कहा कि हे प्रभु!जिस दशानन ने आपकी पत्नी सीता का हरण किया है,मैं उसी अपहर्ता और आपके शत्रु का अनुज हूँ,छोटा भाई हूँ।इसके अतिरिक्त भी विभीषण जी कहते हैं कि भगवान ने जो प्रतिज्ञा ली है कि "निशिचरहीन करहुं महि भुज उठाई प्रण किन्ह"अर्थात हे श्रीराम!आपने जिस निशाचर वंश का नाश करने की प्रतिज्ञा ली है,मैं उसी निशाचर वंश से ही हूँ।इससे सिद्ध होता है कि विभीषण तनिक भी कपटी स्वभाव के नहीं थे।इनका निष्कपट होना ही एक साधक के रूप में उनके समर्पण की उत्कृष्टता है,चरमावस्था है,जो श्रीराम को अतिप्रिय है।
निष्कपट होने का तात्पर्य मनसा,वाचा,कर्मणा एक ही चिंतन,एक ही कथन और एक ही तादात्म्य होना है।यदि मन में जो है,वह वाणी से नहीं प्रकट होता तो यही कपट है।इसीलिए कपट को कुत्सित: पट: कहकर संबोधित किया जाता है।पट अर्थात परदा,आवरण यदि कुत्सित है तो मन,वाणी और कर्म में एक भाव का तादात्म्य हो ही नहीं सकता।यहीकरण है कि विभीषण ने अपने ऋषिवंश का परदा लगाकर अपना परिचय नहीं दिया।निष्कपट भाव से रावण का बंधु और निशाचर वंश में जन्म लेने को छिपाया नहीं।विभीषण का यही निष्कपट भाव उनके साधक होने की प्रकृष्ट अवस्था का परिचायक है।जिससे प्रसन्न हो भगवान श्रीराम ने तुरंत समुद्र के जल से उनका लंकापति के रूप में अभिषेक करते हुए अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान किया।
विभीषण को बंधुद्रोही,घर का भेदी आदि आदि भी कहा जाता है,जोकि उनके चरित्र और व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन नहीं है।विभीषण सत्य,धर्म और नीति के ऐसे अनुयायी, ज्ञाता और रामभक्त हैं,जिन्होंने सत्य,धर्म की रक्षा हेतु अपने भाई के अनुचित कृत्यों का निडरतापूर्वक विरोध किया,कभी भी असत्य संभाषण नहीं किया। सनातन भी यही कहता है कि सत्य और धर्म की रक्षा हेतु हमें सर्वस्व बलिदान करना चाहिए।विभीषण ने यदि ऐसा करने के लिए,स्त्री रक्षा के लिए अपने राजा का विरोध किया,देश का प्रतिकार किया तो उन्हें तिरस्कृत कैसे किया जा सकता है। हाँ,बंधुद्रोही कहकर जो लोग उन्हें संबोधित करते हैं,उन्हें यह सोचना चाहिए कि यदि उनका सगा भाई भी यदि किसी की स्त्री का हरण कर ले,संतों का वध करे,अनुचित आचरण करे तो क्या ऐसे लोग अपने भाइयों का नागरिक अभिनंदन करेंगें,यह विचारणीय है।
-डॉ.उदयराज मिश्र
शिक्षाविद
