शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

लखनऊ :श्रद्धा,स्नेह और संस्कृति का पर्व रक्षाबंधन।।||Lucknow:Rakshabandhan is a festival of faith, affection and culture.||

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लखनऊ :
श्रद्धा,स्नेह और संस्कृति का पर्व रक्षाबंधन।।
।।लेखक - विद्यावाचस्पति उदयराज मिश्र।।
दो टूक : भारतीय संस्कृति में श्रावणी पर्व, जिसे सामान्यतः श्रद्धा,स्नेह,समर्पण और सुचिता का प्रतीक रक्षाबंधन कहा जाता है,एक ऐसा पर्व है जो न केवल भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है, बल्कि इसका गूढ़ धार्मिक, पौराणिक और शास्त्रीय पक्ष भी अत्यंत समृद्ध है। श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व वैदिक काल से ही रक्षा, अनुशासन, कर्तव्य और सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रतीक रहा है।
  प्राचीन भारतीय वांग्मयों के अनुशीलन से दृष्टिगोचर होता है कि विश्व की सबसे प्राचीन सनातन संस्कृति में मानव समाज चार वर्णों और आश्रमों में वर्गीकृत था और उस समय केवल चार ही प्रमुख राजकीय पर्व हुआ करते थे।जिनमें से प्रथम और राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्तियों को पुंजीकृत करने का पर्व रक्षाबंधन था।इस दिन ऋषि,मुनि,कुलगुरु और पुरोहित राजाओं सहित अपने अपने यजमानों को शास्त्रसम्मत आचरण करने की शिक्षा देते हुए उनके उत्तम स्वास्थ्य,लम्बी आयु और यश कीर्ति हेतु उनके हाथों में कलावा अर्थात रक्षासूत्र बांधते थे।रक्षा सूत्र के तीनों धागे केवल धागे ही नहीं होते थे बल्कि आत्मरक्षा,मान रक्षा और राष्ट्र रक्षा को समर्पित तीन प्रण माने जाते थे। दूसरा राष्ट्रीय पर्व क्षत्रियों द्वारा अभिनंदित विजयादशमी का होता था।जिसमें शस्त्र पूजा का विशेष महत्त्व था।विजयादशमी का पर्व क्षत्रियों के नेतृत्व में राष्ट्र रक्षा,प्रजा रंजन और राष्ट्र की सैन्य शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करने का प्रतीक था और आज भी है।इसी प्रकार राष्ट्र के समृद्धशाली और आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने का तीसरा राष्ट्रीय पर्व दीपावली वैश्यों के नेतृत्व में संयोजित होता था तथा तत्कालीन शूद्र कहलाने वाले लोगों के नेतृत्व में चौथा राष्ट्रीय पर्व होलिकोत्सव,रंगोत्सव मनाया जाता था।जिसमें चारो वर्णों के लोग परस्पर मित्रवत साथ साथ मिलकर मनाते थे और किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता था,जैसा कि आजकल राजनेताओं की कलुषित विचारधाराओं से विष फैलता है।इस प्रकार हमारे मनीषियों ने राष्ट्र की समन्वयात्मक शक्ति को पुष्ट करने हेतु जिस तरह से इन चारो पर्वों को व्यवस्थित किया था,कदाचित उसी की देन है कि कई शताब्दियों तक आक्रांताओं,विधर्मियों और लुटेरों के आक्रमणों और हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करने के उपरांत भी सनातन संस्कृति आज भी जीवंत स्वरूप में धरती विराजमान है।
   वेदों में "श्रावणी" पर्व का वर्णन प्रमुख रूप से यज्ञोपवीत-संस्कार एवं ब्राह्मणों द्वारा ऋषियों से रक्षा-सूत्र प्राप्त करने के रूप में किया गया है।विश्वपिता ब्रह्मदेव के पुत्र अथर्वा द्वारा आज ही के दिन श्रवण नक्षत्र में चंद्रमा की सोलह कलाओं से युक्त निशा को साक्षी मानकर वेदमन्त्रों की ऋचाओं का गायन करने के फलस्वरूप यह पर्व वेदाध्ययन की शुरुआत का भी महापर्व माना जाता है।इसीलिए इसे रक्षापर्व के अलावा श्रावणी पर्व के नाम से भी मनाते हैं।अथर्ववेद में एक मन्त्र है:- 
"येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥"
इस मन्त्र द्वारा रक्षा-सूत्र बाँधा जाता है, जो केवल भाई-बहन के बीच ही नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा और यजमान-ऋत्विज के बीच भी संबंध को सुरक्षित करता था।रक्षाबंधन को हेमाद्रि संकल्प दिवस भी कहा जाता है।विधर्मियों द्वारा सनातन संस्कृति और हमारे पूजास्थलों को ध्वंस करने पर आज ही के दिन सभी विद्वतजन,राष्ट्रभक्त और जागरूक लोग नदियों के जल में खड़े होकर फिर से अखंड भारत बनाने का संकल्प दोहराते थे।जिसे हेमाद्रि संकल्प कहा जाता है।
  श्रौतसूत्रों एवं गृह्यसूत्रों में वर्णित है कि इस दिन ब्राह्मण वेदाध्ययन की समाप्ति पर यज्ञोपवीत बदलते हैं और इसे 'उपनयन' की पुनः पुष्टि के रूप में मनाते हैं। इसे ही "श्रावणी" कहा गया है।
  रक्षाबंधन का वर्णन अनेक पुराणों में विविध प्रसंगों के माध्यम से हुआ है:-
   भागवत पुराण के अनुसार जब असुरों ने इंद्र को पराजित किया, तब गुरु बृहस्पति के निर्देश पर शची (इंद्राणी) ने इंद्र की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा। इस मन्त्र से युक्त सूत्र के प्रभाव से इंद्र ने विजय प्राप्त की।
  महाभारत में वर्णित है कि श्रीकृष्ण जब शिशुपाल वध के समय घायल हुए, तो द्रौपदी ने अपने आँचल से उनके हाथ की उँगली बाँध दी। कृष्ण ने वचन दिया – “यदा यदा ही ते रक्षां आवश्यकं स्यात्तदा उपस्थितोऽस्मि”। चीरहरण के समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा कर इस वचन को निभाया।
   वामन पुराण में प्रसंग आता है कि भगवान विष्णु जब बलि को वचनबद्ध होकर पाताल चले गए, तब लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षा-सूत्र बाँधा और उसे भाई बना लिया। बलि ने उन्हें वरदान दिया कि वे भगवान विष्णु को अपने साथ स्वेच्छा से मुक्त कर सकती हैं।
   रक्षा-सूत्र केवल रक्षा का धागा नहीं, बल्कि आत्मिक विश्वास और ईश्वर से प्रार्थना का प्रतीक है।यह पर्व “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना को मूर्त करता है।रक्षाबंधन पर यज्ञ, जप, व्रत और स्नान-दान की भी परंपरा है।

  रक्षाबंधन के दिन चंद्रमा को भी पूजने की परंपरा है, विशेषतः श्रावण पूर्णिमा को।महाराष्ट्र में यह दिन नारळी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है, जहाँ कोकण के मछुआरे समुद्र देवता को नारियल अर्पित करते हैं।उज्जैन एवं नासिक जैसे स्थानों पर श्रावणी उपाकर्म होता है जिसमें ब्राह्मण वेदपाठ के संकल्प के साथ रक्षा सूत्र बाँधते हैं।
  आज यह पर्व नारी-सम्मान, सामाजिक सद्भाव और बंधुत्व का संदेश देता है।बहनें भाइयों को केवल रक्षा का आग्रह नहीं करतीं, बल्कि आज के संदर्भ में उन्हें कर्तव्यनिष्ठ, संवेदनशील और नारी-रक्षक बनने की प्रेरणा भी देती हैं।
  पर्यावरण की रक्षा, जल संरक्षण, गौ-सेवा आदि के लिए भी आज रक्षा-सूत्र बाँधने की नई परंपराएं विकसित हुई हैं।
  श्रावणी पर्व (रक्षाबंधन) केवल एक पारिवारिक उत्सव नहीं, बल्कि यह सनातन धर्म की उन बहुपरतीय परंपराओं में से एक है जो वेद, पुराण और इतिहास से होते हुए आधुनिक समाज तक चली आई है। इसके प्रत्येक धागे में श्रद्धा, स्नेह और संस्कृति के गहन सूत्र जुड़े हैं। यही कारण है कि यह पर्व भारत की आत्मा की रक्षा की भावना को पोषित करता है।आज के परिप्रेक्ष्य में जबकि आचरणहीनता की घटनाएं चरम पर हैं,नैतिक और मानवीय मूल्यों का पतन बहुत ही तेजी से बढ़ता जा रहा है,ऐसे में यह पर्व अंधेरे में रोशनी के समान भारत की खोई प्रतिष्ठा और नारी शक्ति के सम्मान एवं पुरुषों के पौरुष को जागृत करने का सर्वश्रेष्ठ पर्व है,उपागम है,जिसका कोई जोड़ या विकल्प नहीं है।
॥ ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ॥