सोमवार, 18 अगस्त 2025

लखनऊ :श्रीकृष्ण का खगोलशास्त्र अद्वितीय था।|Lucknow :Shri Krishna's astronomy was unique.||

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लखनऊ :
श्रीकृष्ण का खगोलशास्त्र अद्वितीय था।
।। डॉ० उदयराज मिश्र।। 
दो टूक : आधुनिक खगोलशास्त्री भले ही ब्रह्माण्ड की रचना और निर्माण का उत्तरदायी कारक बिग बैंग थ्योरी को मानते हुए कल्पनाओं के संसार में भांति भांति के प्रयोगों और अनुप्रयोगों को दोहराते रहते हैं किंतु आज-तक कोई भी वैज्ञानिक श्रीमद्भगवत गीता में जयद्रथ वध हेतु सूर्य को लोगों की दृष्टि से ओझल करने और फिर आभासी रूप को हटाकर वास्तविक सूर्य को नभमंडल में जाज़्वल्यमान करने की श्रीकृष्ण की खगोलीय क्षमता से पार नहीं पा सका है।जिससे यह यक्ष प्रश्न विचारणीय है कि क्या श्रीकृष्ण का अंतरिक्ष विज्ञान आज के खगोलशास्त्र से भी समुन्नत था?क्या श्रीकृष्ण स्वयं सभी नक्षत्रों,ग्रहों और आकाशीय पिंडों की गतियों के निर्धारक थे?या फिर कोई अन्य कारण था।जो भी हो,आज के दौर में जबकि रामायण और महाभारत में वर्णित घटनाओं के आधार पर नित्यप्रति नवीन प्रयोग हो रहे हैं तथा पूर्णता को भी प्राप्त कर रहे हैं,ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि श्रीकृष्ण का खगोल ज्ञान अद्वितीय था।
    देखा जाय तो श्रीकृष्ण का पूर्णावतार अपने आपमें सभी दृष्टि और कार्यों से भी संपूर्ण था।श्रीरामचरित मानस में भी गोस्वामी जी ने खगोलशास्त्र का वर्णन करते हुए विभिन्न स्थानों पर  ऐसा वर्णन किया है,जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण का खगोल विज्ञान आज से बहुत उन्नत था।श्रीराम जन्म के समय भी सूर्य से संबंधित एक अदभुत खगोलीय घटना हुई थी,जिसका वर्णन श्रीरामचरित मानस में मिलता है। श्रीरामवातार चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी को मध्य दिवस में हुआ था।उस समय भगवान सूर्य आकाश में सीधे ऊंचाई पर थे किंतु जब उन्होंने देखा कि अयोध्या में महाराज दशरथ के यहां स्वयं नारायण ने अवतार ले लिया है तो - 
कौतुक देखि  पतंग भुलाना।
एक मास तक जात न जाना।।
  अर्थात श्रीराम के जन्म के कौतुक को देखकर भगवान सूर्य पूरे एक महीने तक अयोध्या में स्थिर रहे और एक दिन उस समय एक महीने के बराबर हुआ।इतना ही नहीं श्रीराम भक्त हनुमान भी श्रेष्ठ खगोलवैज्ञानिक थे। उन्होंने रावण को समझाते हुए कहा है कि - 
सुनु  रावण  ब्रह्मांड  निकाया।
पाई जासु बल विरचित माया।।
जा बल शीश धरत सहसानन।
अंडकोष  समेत  गिरि कानन।।
  इस प्रकार देखा जाय तो कृष्णावतार की ही तरह रामावतार में भी ग्रहों,नक्षत्रों और ब्रह्मांड में होने वाली घटनाओं पर सीधा नियंत्रण जिस तरह श्रीराम का था,उसी प्रकार कृष्णावतार में श्रीकृष्ण का।जिसे आजतक आधुनिक वैज्ञानिक पूरी तरह से न तो समझ पाए हैं और न समझने की कोशिश ही कर रहे हैं।
  भारतीय संस्कृति में खगोलशास्त्र केवल नक्षत्र-गणना का विज्ञान नहीं रहा, बल्कि यह धर्म, दर्शन और दैवचक्र का आधार रहा है। तारों की गति, ग्रहण की घटना, ऋतु-चक्र और काल-परिवर्तन—ये सभी हमारे पुराणों और महाकाव्यों में गहरे समाहित हैं। महाभारत में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इसी खगोल-ज्ञान का जीवंत प्रतीक है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा—
"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः।"
(गीता ११।३२)
  अर्थात् "मैं लोकों का संहार करने वाला काल हूँ।"
यह उद्घोष स्पष्ट करता है कि श्रीकृष्ण स्वयं को ब्रह्मांडीय खगोल-चक्र का नियंता और कालपुरुष मानते थे। उनके लिए समय (काल) केवल घड़ी या दिन-रात का मापक नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की गति का आधार था।
  महाभारत युद्ध के १४वें दिन का प्रसंग खगोल-विज्ञान का अनुपम उदाहरण है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि सूर्यास्त तक जयद्रथ का वध न होगा तो वे अग्नि में प्रवेश करेंगे। जब सूर्यास्त निकट आया तो कृष्ण ने अपनी योगमाया से आकाश में सूर्य के अस्त होने का आभास कराया।भीष्मपर्व में कृष्ण के वचन मिलते हैं—
"अद्यैव हि हता राजन् जयद्रथमुखाश्च ये।
येषां चित्तं हता नूनं मम मायावृतं रणे॥"
(महाभारत, भीष्मपर्व १०३।३)
  "हे राजन्! आज ही जयद्रथ और उसके सहायक मारे जा चुके हैं, क्योंकि मेरी योगमाया से उनका चित्त रणभूमि में पहले ही मोहित होकर नष्ट हो चुका है।"
और उसी प्रसंग में सूर्यास्त का मायावी दृश्य दिखाते हुए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं—
"पश्य पार्थ महाबाहो सूर्यः शान्तिमुपैति वै।
नूनं हतो जयद्रथस्त्वयैव तव तेजसा॥"
(महाभारत, भीष्मपर्व १०३।३७)
"हे पार्थ! देखो, सूर्य अस्त होने को है। अब निश्चित ही जयद्रथ तेरे तेज से मारा गया।"
  यह घटना केवल आध्यात्मिक चमत्कार न होकर खगोल विज्ञान की गहन समझ को दर्शाती है। आकाशीय आभा को ढकना, प्रकाश को नियंत्रित करना, या ग्रहण जैसी स्थिति उत्पन्न करना—ये सब दर्शाता है कि कृष्ण नक्षत्र-गति और प्रकाश-भौतिकी के रहस्यों से परिचित थे।
   कृष्ण ने गोकुलवासियों को इन्द्र-पूजा के स्थान पर गोवर्धन-पूजन का उपदेश दिया। यह केवल धार्मिक सुधार नहीं, बल्कि ऋतु-विज्ञान और पर्यावरणीय संतुलन का संदेश था। वे यह बताना चाहते थे कि मानव को आकाशीय देवताओं की पूजा मात्र से नहीं, बल्कि प्रकृति और ऋतु-चक्र के अनुकूल जीवन से ही कल्याण प्राप्त होता है।
  द्वारका का समुद्र में विलीन होना भूगर्भीय और ज्वारीय खगोल का प्रतीक है। समुद्र की बढ़ती ज्वार-भाटा और भूगर्भीय परिवर्तनों का कृष्ण युग में ही अनुभव हुआ, जिसे महाभारत और पुराणों ने संरक्षित रखा।
 आधुनिक खगोलशास्त्र ब्रह्मांड को बिग बैंग सिद्धांत से जोड़ता है। वही सत्य श्रीकृष्ण ने गीता में कहा—
"अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।"
(गीता १०।८)
  अर्थात् "मैं ही समस्त जगत का उद्गम हूँ, मुझसे ही सब संचालित होता है।"
यह कथन ब्रह्मांड के मूल स्रोत की वैज्ञानिक व्याख्या का दार्शनिक रूप है।
   श्रीकृष्ण का खगोलशास्त्र केवल नक्षत्रों की गणना तक सीमित नहीं है। वह काल का नियमन, ऋतु का संतुलन, पर्यावरण का संरक्षण और ब्रह्मांडीय ऊर्जा की व्याख्या है। जयद्रथ-वध प्रसंग इसका सजीव उदाहरण है, जहाँ उन्होंने खगोल-तत्त्व का प्रयोग कर धर्म की रक्षा की।
इस प्रकार श्रीकृष्ण भारतीय खगोल-विज्ञान के जीवंत प्रतीक और कालचक्र के अधिपति हैं।