बुधवार, 9 जुलाई 2025

लेख:भाषा की ओट जमीन तलाशते ठाकरे।||Article:Thackeray seeks ground under the cover of language.||

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लेख:
भाषा की ओट जमीन तलाशते ठाकरे।
।।डॉ. उदयराज मिश्र।।
अभी तमिलनाडु और कर्नाटक के भाषाई विवादों की आग ठंडी भी नहीं हो पायी थी कि सत्ता के गलियारों से उठाकर दूर फेंके गए ठाकरे बंधुओं को फिर से भाषाई विवाद की ओट में अपने खोए हुए जनाधार और नष्टप्राय हो चुकी अस्मिता की झलक दिखाई देने लगी है।जिससे समुद्र के किनारे बसा समूचा महाराष्ट्र एकबार फिर से मराठी बनाम हिंदी विवाद में जलने लगा है,जोकि अत्यंत चिंतनीय विषय है। यह मुद्दा न केवल सामाजिक समरसता को चुनौती देता है, बल्कि लाखों हिंदीभाषियों की स्थिति को भी अस्थिर करता है, जिनका इस राज्य के निर्माण और प्रगति में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
  यदि विवाद की ताज़ा स्थिति और घटनाक्रम पर नजर डाली जाय तो यह बात साफ साफ मालूम होती है कि मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) द्वारा फरवरी 2025 में जारी एक नोटिस के अनुसार, सभी दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के बोर्डों पर “मराठी (देवनागरी लिपि में)” नाम बोल्ड अक्षरों में सबसे ऊपर होना अनिवार्य किया गया।जहां से इस विवाद की शुरुआत हुई क्योंकि मराठी मानुस संगठनों द्वारा हिंदी में लिखे बोर्ड और विज्ञापनों के खिलाफ प्रदर्शन और कई जगहों पर तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं।ठाणे, कल्याण, डोंबिवली व नवी मुंबई में उत्तर भारतीय व्यापारियों पर "बाहरी" कहकर निशाना बनाया गया।दिलचस्प बात तो यह है कि अंग्रेजी और उर्दू को लेकर ठाकरे परिवार ने कभी भी विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता है कि हिंदी भाषी उत्तर भारतीय लोग महाराष्ट्र की सरकारी नौकरियों से लेकर सभी छोटे बड़े कामों में मराठियों को पीछे धकेल रहे हैं,और कि उनके परम्परागत मतदाता भी नहीं है।
    आंकड़ों की दृष्टि से हिंदीभाषियों की स्थिति की समीक्षा की जाए तो मुंबई महानगर क्षेत्र  89 लाख (2021 अनुमान) लगभग 32%
ठाणे-कल्याण बेल्ट 21 लाख 28%
पुणे शहर 9 लाख 13%
संपूर्ण महाराष्ट्र 3.1 करोड़ (Census 2011 के अनुसार) 27.2% उत्तर भारतीय रहते हैं,जो यद्यपि हिंदी भाषी हैं किंतु सभी भारतीय भाषाओं की ही तरह मराठी को भी हिंदी के बराबर सम्मान देते हैं। 2021 की रिपोर्ट के अनुसार मुंबई में प्रत्येक तीसरा नागरिक हिंदी बोलता है।2011 की जनगणना में महाराष्ट्र में हिंदी को मातृभाषा बताने वालों की संख्या 2.57 करोड़ थी, जो अब बढ़कर 3.1 करोड़ से अधिक आंकी जाती है।
     ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र के विकास में केवल मराठी मानुष  का ही योगदान है।उद्योग व श्रम क्षेत्र में भागीदारी अत्यधिक होने से महाराष्ट्र आज एक सम्पन्न राज्य है।किंतु इसमें बड़ा योगदान हिंदी भाषियों का है।बीएमसी और एमएमआरडीए परियोजनाओं में 40% से अधिक श्रमिक उत्तर भारतीय हिंदीभाषी हैं।मुंबई के निर्माण, परिवहन, खाद्य वितरण (डब्बावाला) और हाउसकीपिंग सेवाओं में हिंदीभाषियों की अत्यधिक भागीदारी है।मुंबई के धारावी, कुर्ला, भायंदर, बोरीवली में हिंदीभाषी लघु व्यापारी और कारीगरों की बड़ी संख्या है।इसके अतिरिक्त बॉलीवुड का 80% से अधिक संवाद और पटकथा हिंदी में होती है—जिसकी वजह से महाराष्ट्र को अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक मंचों पर पहचान मिली।महाराष्ट्र सरकार के शालेय शिक्षण विभाग के आंकड़ों के अनुसार, 2023 तक राज्य में 1,298 हिंदी माध्यम विद्यालय हैं, जिनमें 8.2 लाख से अधिक विद्यार्थी अध्ययनरत हैं।जिससे ज्ञात होता है कि हिंदी भाषी महाराष्ट्र में न तो कम संख्या में हैं,और न ही कमजोर हैं।स्वयंबीएमसी क्षेत्र में हिंदी माध्यम स्कूलों की संख्या: 360 यह बताती है कि उत्तर भारतीयों का महाराष्ट्र में जलवा है।जिससे ठाकरे परिवार खौफ खाता है।यही कारण है कि रह रह के जैसे सांप केंचुल छोड़ता है उसी तरह ये भी भाषा विवाद की आड में रोटियां सेंकने का कार्य करते हैं।यहां यह कहना प्रासंगिक है कि नागपुर, नाशिक, और औरंगाबाद जैसे शहरों में हिंदी साहित्य सम्मेलन व मंचों की सक्रियता उल्लेखनीय है।जिसे आजतक कोई बंद नहीं करवा पाया।
    प्रश्न जहां तक संवैधानिक  अधिकारों और उपबंधों का है तो संविधान की अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत भाषायी अभिव्यक्ति का अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है।अनुच्छेद 347 और अनुच्छेद 350 भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं।महाराष्ट्र राज्य ने 1966 में 'मराठी को प्रमुख राजभाषा' घोषित किया, लेकिन हिंदी को भी द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिला है, जो व्यवहार में नगण्य होता जा रहा है।कदाचित इस वास्तविकता को ठाकरे परिवार या तो जान नहीं रहा है या फिर जानकार अंजान बना बैठा है।
    अपने ही देश में भाषा के नाम पर अपने ही स्वजनों का अपमान,उनके साथ मारपीट और गाली गलौज,प्रवासी हिंदीभाषियों को 'बाहरी' कहना न केवल उनके आत्म-सम्मान पर आघात है, बल्कि यह राज्य की प्रगतिशील छवि पर भी धब्बा है।भाषाई पहचान की राजनीति, सामाजिक विघटन और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डाल सकती है।
  भाषाई विवाद के समाधान हेतु महाराष्ट्र की प्रांतीय सरकार को चाहिए कि -द्विभाषिक सह-अस्तित्व को राज्य नीति में प्रमुखता दी जाए—जिसमें मराठी को प्रमुखता मिले पर हिंदी को सम्मानपूर्वक स्थान भी।हिंदी व मराठी के बीच भाषाई मैत्री कार्यक्रम चलाए जाएं—शिक्षण संस्थाओं में साझा उत्सव, कवि सम्मेलन, नाट्य प्रतियोगिताएं।हिंदीभाषियों की सामाजिक, साहित्यिक व शैक्षिक संस्थाओं को राज्य सरकार से समान सहयोग प्राप्त हो।
    ठाकरे परिवार को समझना चाहिए कि महाराष्ट्र की शक्ति उसकी विविधता में है। यहाँ मराठी, हिंदी, गुजराती, उर्दू, तमिल, तेलुगु, कन्नड़—सभी भाषाएं एक साथ सांस लेती हैं। हिंदीभाषियों को संदेह की दृष्टि से नहीं, बल्कि एक ऐसे समुदाय के रूप में देखा जाना चाहिए जिन्होंने महाराष्ट्र की मिट्टी को सींचा है।
हिंदीभाषी "बाहरी" नहीं, महाराष्ट्र के "साझेदार" हैं।
भाषा को विभाजन का औजार न बनाकर संवाद का सेतु बनाया जाए—यही समय की मांग है।
✍️ लेखक:
डॉ. उदयराज मिश्र
मंडलाध्यक्ष, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अयोध्यामंडल
माध्यमिक संवर्ग, उत्तर प्रदेश
📞 9453433900