लखनऊ :
सिमटती नदियां बढ़ती बाढ़,मानव सभ्यता पर खतरा:डॉ० उदयराज मिश्र।।
दो टूक : नदियां किसी भी राष्ट्र की धमनियां होती हैं।जिनसे होकर अजस्र जलराशि का निरंतर प्रवाहन कृषि क्षेत्र के साथ-साथ भूगर्भ के जल स्तर को भी बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।प्राचीन काल में परिवहन के सर्वाधिक सुगम साधन होने के कारण जहां सभी प्रमुख सभ्यताओं के उदय इन्हीं नदियों के किनारे हुआ वहीं व्यापारिक दृष्टिकोण से प्राचीन काल से अबतक नगरों का विकास भी नदियों के दहाने पर ही हुआ है।जिसकी गवाही आज भी भारत ही नहीं अपितु विश्व के सभी नगर स्वयम ही हैं।इसप्रकार कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मानवता को पालने पोसने से लेकर उसके संवर्धन तक में नदियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।जिनके बगैर समृद्ध राष्ट्र की संकल्पना और मानवता के अस्तित्व सम्भव ही नहीं असम्भव भी है।किंतु कदाचित जब यही नदियां ही स्वयम के अस्तित्व को लेकर संकट में हों तो मानवता कैसे प्रमुदित तथा प्रफुल्लित रह सकती है,यह विचारणीय यक्ष प्रश्न है।आखिर बाढ़ की विभीषिका से जूझते नगरों,कस्बों और गांवों की दुर्दशा के वास्तविक कारण क्या हैं,यह सोचनीय है।
वस्तुतः हमारे देश में प्राचीन काल से ही नदियों को देवी स्वरूपा मानते हुए उनकी रक्षा करने का विधान है किंतु आज के विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले विस्तारवादी मानव ने जहां अपने संस्कारों को तिलांजलि देकर महज अपनी इच्छाओं की पूर्ति तक स्वयम को सीमित कर लिया है वहीं उसे अपने भी अस्तित्व के साथ-साथ नदियों के भी सहअस्तित्व का लेशमात्र ध्यान नहीं रहा है।यही कारण है कि विकास के थोथे दम्भ के चलते मनमाने खनन,अवैध निर्माण औरकि नदियों के किनारों तक बहुमंजिली इमारतों का निर्माण करते हुए नदियों के सतत प्रवाहन के मार्ग को भी परिवर्तित करने के साथ-साथ अवरुद्ध तक करने का कुत्सित प्रयास निरंतर जारी है।यही कारण है कि पौराणिक काल मे बहने वाली अनेक नदियों का नामोनिशान तक मिट चुका है या फिर पुस्तकों में छपकर रह गया है।यही कारण है कि अब बाढ़ जैसी विभीषिका कछारों को छोड़ नगरों और कस्बों तक आने लगी है और लोग त्राहिमाम करते हुए दिखाई दे रहे हैं।राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में गतवर्ष लालकिले तक यमुना का जलप्रलय, काशी में घाटों को जलमग्न कर सड़कों पर बहने वाली भागीरथी,आगरा में यमुना का जल प्रहार और प्रयाग में संगम पर उफनाती नदियों का तांडव कदाचित आधुनिकता की अंधी दौड़ में पगलाए इंसानों की लिप्सा का ही प्रतिफल कहा जा सकता है जिसके चलते महीनों तक दिल्ली हकलान रही,प्रयागराज में गलियों में नौकायन होने लगा,काशी में हाहाकार और आगरा में त्राहि त्राहि मची और हालात बद से बदतर हो गए थे।कमोवेश ऐसे ही हालात हिमाचल,उत्तराखंड,पंजाब और बिहार में भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं,जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।
महज एकदिन की भारी बरसात में विकास की पोल खोलती नदियों का जलस्तर आज विस्तारवादी मनुष्यों को उनकी करनी का दंड दे रहा है।जिसके साथ निरीह आम जनता भी दंड पा रही है।कदाचित प्रकृति का यह दंड नदियों के अस्तित्व के दृष्टिकोण से उचित भी है और स्वागतयोग्य भी है।आखिर खनन माफियाओं,अवैध भवन निर्माताओं और राजमार्गो का निर्माण करने वाली कम्पनियों की आंख भी खोलनी आवश्यक थी।जिनपर शासन और प्रशासन की कृपादृष्टि के चलते नदियां स्वयम पथ हीन हो आज अस्तित्व तलाशने को विवश हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़,अम्बेडकरनगर,बलिया,गोरखपुर,बस्ती,अयोध्या,सुल्तानपुर,मऊ, गाजीपुर आदि ऐसे शहर हैं जहाँ छोटी मोटी नदियों की तली तक बने मकान इस नदियों के मार्ग अवरुद्ध करते हैं।यही कारण है कि वर्ष 2021 मेंआज़मगढ़ में भंवरनाथ से लेकर हरवंशपुर,पल्हनी,कोलघाट आदि क्षेत्रों में व्यापक तबाही देखी गयी थी।यहां पर नदी क्षेत्र में बने मकान इस बात की गवाही देते हैं कि नदी तो अपने मार्ग पर है किंतु ये मकान ही अवैध हैं,जिनका कि डूबना और गिरजाना ही श्रेयष्कर है।कदाचित यही हालत अम्बेडकरनगर के अकबरपुर की भी है।यहां तमसा जैसी पौराणिक काल की नदी का अतिक्रमण देखने लायक है।भूमाफियाओं ने नदी की तलहटी तक जमीनों का सौदाकरते हुए बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी कर दी हैं।जिससे नदी का प्रवाहन अवरुद्ध होने से पानी बाढ़ के रूप में नगर की सड़कों पर पिछले वर्ष महीनों तक बहता रहा था।कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे देश में प्रत्येक नदी का दायरा अब पहले जैसा नहीं रहा,विकास ने लील लिया है।लिहाजा विनाश तो तय ही है,आपदाओं की मार अवश्यंभावी ही है।
वस्तुतः बाढ़ की विभीषिका एक नैसर्गिक आपदा भले मानी जाती हो किन्तु दिनोंदिन यह मानवजन्य भी होती जा रही है।जबतक नदियों का स्वतंत्र प्रवाहन जारी नहीं होगा,ऐसी आपदाएं साल हरसाल आती रहेंगीं।अतएव अच्छा यही होगा कि अबसे ही सही सभी भवनों को गिराते हुए नदियों को पुनर्जीवित किया जाए।जिससे बहते हुए पानी को एक क्षेत्र विशेष में रुकने का अवसर न मिले अन्यथा विस्तारवादी मानव का भी अस्तित्व स्वयम के चलते संकट में बना रहेगा।
यूँ तो देखा जाय तो जलप्लावन के अनेक उत्तरदायी कारक हैं।जिनमें प्रदूषण,वृक्षों की कटान,जलवायु परिवर्तन औरकि सतत होने वाले खनन प्रमुख हैं।किंतु इन सबसे भी अधिक उत्तरदायी कोई कारक अगर है तो मनुष्य द्वारा नदियों के मार्गो में अतिक्रमण,यह चाहे नए नए बांधों के रूप में हो या फिर भूमाफियाओं की कुत्सित क्रियाओं का प्रतिफल हो,जो भी हो इसके लिए प्रकृति से अधिक मानव स्वयम में जिम्मेदार है।लिहाजा बाढ़ की विकराल आपदा से निजात हेतु नदियों से नहरों का निकास और जलमार्गों का अबाध प्रवाहन अत्यावश्यक है।जिसके बगैर साल दर साल आपदा प्रबंधन की होने वाली बैठकें व व्यवस्थाएं किसी बेमानी से कम नहीं होंगीं और परिणाम का परिमाण सिफर से इतर और कुछ नहीं होगा।