सोमवार, 25 अगस्त 2025

लखनऊ : बिखरते परिवार और कुटुंब प्रबोधन : एक गवेषणात्मक अध्ययन।।||Lucknow : Disintegrating families and family enlightenment: An investigative study.||

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लखनऊ : 
बिखरते परिवार और कुटुंब प्रबोधन : एक गवेषणात्मक अध्ययन।।
।। डॉ०उदयराज मिश्र।।
दो टूक :  भारतीय समाज की मूल आत्मा परिवार और कुटुंब व्यवस्था में निहित रही है।व्यक्ति परिवार की सबसे छोटी इकाई होता है। व्यक्तियों से परिवार,परिवारों से समुदाय और समाज बनता है।जिसमें संयुक्त परिवार,जहाँ चार पीढ़ियाँ एक छत के नीचे रहती थीं, हमारे सांस्कृतिक आदर्श और सामाजिक अनुशासन के जीवंत उदाहरण थे।दादा - दादी के किस्से,परियों की कहानियां,रामायण और महाभारत के वृत्तांत इन संयुक्त परिवारों में बिना विद्यालय गए ही दंत कथाओं आदि के माध्यम से बच्चों को ज्ञात हो जाते थे।जिससे बच्चों में बाल्यकाल से ही चरित्र निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती थी,जो विद्यालयों,अच्छे मित्रों की संगति और अच्छी पुस्तकों आदि के अध्ययन से पुष्ट होती थी।जिससे व्यवहारों में अपेक्षाकृत स्थाई प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन होने से समाज में सद्वृतियों का पुट सर्वत्र दिखता था।किंतु 21वीं सदी में आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और तकनीकी परिवर्तन के कारण परिवारों में विघटन, आपसी संवाद की कमी और संबंधों की ठंडक स्पष्ट रूप से अनुभव की जा रही है। यह स्थिति केवल सामाजिक ताने-बाने को ही नहीं, बल्कि व्यक्ति की मानसिक शांति और जीवनमूल्यों को भी प्रभावित कर रही है। इसीलिए "कुटुंब प्रबोधन" यानी परिवार के प्रति जागरूकता और शिक्षा आज की आवश्यकता बन गई है।
   वस्तुत:जब कोई बच्चा घर में जन्म लेता है तो जैसे जैसे वह बड़ा होता है,वैसे वैसे अपने इर्दगिर्द और परिवार के लोगों के आचरणों की नकल करते हुए स्वयं भी वैसा ही आचरण करने का प्रयास करता रहता है।परिवार के संस्कार,मूल्य,परिवार की कार्य संस्कृति,लोगों की बोलचाल और परिवार का जैसा परिवेश होता है, वही बच्चे का भी धीरे धीरे हो जाता है।इसे पारिवारिक वृत्ति कहते हैं।बच्चा जैसे जैसे बड़ा होने लगता है,वह परिवार की वृत्ति के अनुरूप ही वैसा ही आचरण करने का प्रयास करने में लग जाता है।इसे प्रवृत्ति कहते हैं।किंतु एक जैसी प्रवृत्ति में अनवरत रत रहने के कारण उसकी सोच,उसका चिंतन,उसका औरों से बर्ताव,व्यवहार,संगति,बोलचाल आदि भी बड़े होने पर स्थाई प्रकार के व्यवहारों में परिवर्तित हो जाते हैं।जिससे वह आजीवन वैसा ही व्यवहार औरों से करने का अभ्यस्त हो जाता है,जैसा उसके परिवार के लोग करते थे।इस प्रवृत्ति को ही व्यक्ति की मनोवृत्ति कहते हैं।यही कारण है कि जब परिवार संयुक्त हुआ करते थे तब परिवार के बड़े बुजुर्ग अच्छी अच्छी बातें और सदाचार के नियम छोटे बच्चों को किस्से कहानियों के माध्यम से सुना सुनाकर उनके भीतर सद्गुणों का विकास करते थे,किंतु क्या आज यह संभव है?यह सोचनीय है,विचारणीय है।
   संयुक्त परिवार सद्गुणों की खान होते हैं किंतु रोजगार और नौकरी के अवसर महानगरों में केंद्रित होने से युवा अपने मूल परिवार से दूर बसने लगे।लिहाजा भौतिकवादी संस्कृति में "अर्जन और उपभोग" को महत्व मिलने से संयुक्त परिवार के सहयोगी तंत्र का महत्व घटा।जिससे नौकरीशुदा लोग शहरों में तो बेरोजगार या खेती करने वाले लोग गांवों में रहने लगे।कालांतर में फासले दूरियों में बदलते गए और संयुक्त परिवार धड़ाम होते गए और कुटुंब प्रबोधन चोटिल होता गया।जिससे बाल्यकाल में ही दादा - दादी के किस्से,माताओं की लोरियां,चाचा - चाची के दुलार,बुआ की डपट और पड़ोसियों के बच्चों संग गिल्ली डंडा,कबड्डी,मच्छीमार गोटियों के खेल अब स्वयं दंत कथा बनते जा रहे हैं।अब "मां कह एक कहानी,राजा था या रानी" जैसी कविताएं अतीत होती जा रहीं हैं,बचपन लूटता जा रहा है,परिवार खंड खंड होते जा रहे हैं,यही मानवीय मूल्यों पर सबसे बड़ा कुठाराघात है।
 पश्चिमी जीवनशैली के बढ़ावे ने भारतीय संयुक्त परिवारों को जितना नुकसान पहुंचाया है,उतना मुगलों ने नहीं पहुंचाया था।मुगलों ने शारीरिक और आर्थिक और सांस्कृतिक नुकसान किया था किंतु फिर भी भारतीय संस्कृति जीवंत रही परन्तु अंग्रेजों ने भारतीयों  के मन मस्तिष्क में जिसतरह पश्चिमी संस्कृति के प्रति अनुराग और भारतीय संस्कृति के प्रति घटियापन का बीज बोया था,वह अब मानसिक गुलामी के रूप में दिख रहा है।पश्चिमी जीवन-शैली के प्रभाव से आजकल लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता को सर्वोच्च मानने लगे हैं।जिससे उनके लिए उन्मुक्त जीवन ही असली स्वतंत्रता दिखती है।ऐसे लोग परिवार को अपने उन्मुक्त जीवन की सबसे बड़ी बाधा मानते हैं।जिससे परिवार बहुत तेजी से बिखरते हैं।परंपरागत कर्तव्य-बोध और पारिवारिक अनुशासन को "बंधन" के रूप में देखे जाने से आधुनिक महिलाएं अब संयुक्त परिवारों से नफरत तक करती हैं।उन्हें यदि कोई उन्मुक्तता पूर्ण जीवन से सचेत करता है तो वे उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु तक मानने लगती हैं।इसलिए महिलाओं को सर्वप्रथम कुटुंब प्रबोधन के लिए फिर से अपने दायित्वों का बोध करते हुए समृद्ध राष्ट्र निर्माण हेतु संस्कारवान परिवार का निर्माण करना ही होगा,अन्यथा उनके बनाए किले उनकी ही आंखों के सामने ढह जायेंगें और वे स्वयं वृद्धाश्रम में शेष जीवन मृत्यु पर्यंत बिताने को विवश होंगी।
  वस्तुत: आधुनिक शिक्षा व्यवस्था द्वारा प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने से लोगों में संवादहीनता और तनाव ने पीढ़ियों के बीच की खाई को गहरी कर दिया है।मोबाइल और सोशल मीडिया ने आभासी संवाद को वास्तविक रिश्तों से ऊपर रख दिया है।जिससे सभी लोग इस मिथ्या संसार में अपनी काल्पनिक अनुभूतियों को वास्तविक मानते हुए पास रहते हुए भी बहुत दूर दूर दिखते हैं।परिवार एक छत के नीचे रहते हुए भी मानसिक रूप से "अलग-अलग कमरों" में बँट चुके हैं।
  बिखरते परिवार के दुष्परिणाम किसी से छिपे नहीं हैं।मानसिक तनाव और अकेलापन : वृद्धजनों में उपेक्षा की भावना, युवाओं में असुरक्षा और बच्चों में अनुशासनहीनता आज एकाकी परिवारों में आमतौर पर देखा जा सकता है।इसके अतिरिक्त
मूल्य-संकट एकाकी परिवारों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है। आदर, सेवा, सहयोग, त्याग जैसे भारतीय मूल्य  टूटते परिवारों और घटते कुटुंबों के कारण कमजोर होते जा रहे हैं।सामाजिक तानेबाने के कमजोर होने से  विघटन, आत्महत्या,तलाक, अपराध और नशाखोरी की घटनाओं में वृद्धि आज देश ही नहीं वैश्विक समस्या बन चुकी है।पहल गांवों में बाइस्कोप,रामलीलाओं,मेलों,कुश्तियों,दंगलों आदि के खूब प्रचलन थे।किंतु सांस्कृतिक ह्रास होने से पर्व-त्योहार और परंपराएँ केवल औपचारिकता तक सीमित हो गई हैं।
  "कुटुंब प्रबोधन" का आशय है—परिवार को एक विद्यालय मानकर उसमें संस्कार, मूल्य और संबंधों की शिक्षा देना। यह केवल धार्मिक उपदेश नहीं, बल्कि व्यावहारिक मार्गदर्शन है।इसमें परिवार के सभी बड़े सदस्यों की भूमिका प्रशिक्षक की होती थी।यहीं से मुख्य शिक्षा की शुरुआत होती थी। मूल्य-शिक्षा का पुनर्जागरण कुटुंब प्रबोधन से ही संभव है।इसलिए बच्चों को "परिवार ही पहली पाठशाला है" का अनुभव कराना आज सबसे आवश्यक आवश्यकता है। ‘मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः’ की संस्कृति को व्यवहार में लाना और प्रत्येक परिवार में ‘साप्ताहिक परिवार सभा’ जैसी परंपरा विकसित की जा सकती है, जिसमें सभी सदस्य खुलकर संवाद करें।दादी-नानी की कहानियाँ, परिवार के इतिहास का स्मरण और पारंपरिक ज्ञान का आदान-प्रदान परिवार को जीवंत रखता है।त्योहार, संस्कार और अनुष्ठान केवल रीति नहीं, बल्कि बंधन और एकात्मता का साधन हैं।विद्यालय, धार्मिक संस्थाएँ और सामाजिक संगठन यदि कुटुंब प्रबोधन शिविर चलाएँ तो समाज में व्यापक जागरूकता संभव है।
  कुटुंब प्रबोधन के उपाय करने के निमित्त निम्न बातों पर सकारात्मक चिंतन आवश्यक है। यथा -  परिवारिक जीवन पर आधारित कार्यशालाएँ और गोष्ठियाँ।विद्यालयों में "परिवार-शास्त्र" या "जीवन-मूल्य शिक्षा" का समावेश।साहित्य, नाटक, चलचित्र और मीडिया में परिवार की सकारात्मक छवि का प्रचार।माता-पिता और बच्चों के बीच डिजिटल डिटॉक्स (तकनीक से विराम) का अभ्यास।पितृसत्ता या मातृसत्ता की बजाय सहयोगी परिवार व्यवस्था की स्थापना।
  बिखरते परिवार केवल व्यक्ति का संकट नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र का संकट है। यदि परिवार टूटते हैं तो समाज की सामूहिक शक्ति भी टूट जाती है। अतः आवश्यक है कि परिवार को पुनः संस्कार और संवाद का केन्द्र बनाया जाए। "कुटुंब प्रबोधन" कोई आदर्शवादी नारा नहीं, बल्कि आधुनिक जीवन की अपरिहार्य आवश्यकता है। जब परिवार संगठित और सशक्त होंगे तभी समाज में संतुलन, संस्कृति में निरंतरता और व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति संभव होगी।